फिल्म 'डायरी ऑफ़ ए बटरफ्लाई' में स्क्रिप्ट से ज्यादा देह की केमेस्ट्री पर ध्यान दिया गया है
बहुत पहले ये जुमला मशहूर हुआ था कि ‘बॉलीवुड में या तो शाहरुख़ बिकता है या फिर सेक्स.’ और आज भी जिन फिल्मकारों के पास अच्छी कहानी का आभाव रहता है वो अपनी फिल्म में सेक्स का तड़का लगाना बहुत जरुरी समझते हैं. इसी कड़ी में एक फिल्म आई है – ‘ डायरी ऑफ़ बटरफ्लाई ‘ जो न तो ‘मर्डर’ और ‘जिस्म’ के आस-पास बन पाई और न ही फैमिली ऑडियंस की कसौटी पर खड़ी उतारी. अब जरा फिल्म की कहानी पर नज़र डाल लें – जयपुर में रहनेवाली गुल (उदिता गोस्वामी) एक बोल्ड एवं बहुत ही महत्व्कांछी लड़की है जिसके सपने बहुत ही बड़े हैं. उसी सपने को साकार करने वह अपनी एक दोस्त के बुलावे पर मुंबई जा पहुँचती है जहाँ उसकी दोस्त पिया उसे एक फैशन हाउस जहाँ वह खुद भी काम करती है में जॉब लगवा देती है. गुल किसी भी हाल में सफलता हासिल करना चाहती है और उसे मंजिल तक पहुँचने के लिए कई बुरे रास्तों से गुजरने में कोई हिचक महसूस नहीं होती. एक दफा उसे एहसास होता है कि उसने कुछ गलतियाँ की हैं और वह उन्हें सुधारना भी चाहती है लेकिन हालत कुछ ऐसे बनते हैं कि वह उन रास्तों से दुबारा लौट नहीं पाती… वह वक़्त से कहीं आगे बिना अच्छा-बुरा सोचे तेज़ रफ़्तार से बढती ही चली जाती है.
एक साधारण सी कहानी की कमजोर पटकथा और असरहीन संवाद की बदौलत पुरी फिल्म थकी-थकी लगती है. अगर पटकथा ही लचर हो तो निर्देशक चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता. फिल्म में जिस तरह निर्देशक ने नंगे जिस्म के क्लोसअप सीन में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई है अगर उतनी ही दिलचस्पी वे पटकथा में दिखाते तो शायद नतीजा कुछ और ही निकलता.
अभिनय की बात करें तो फिल्म की कहानी शुरू से अंत तक उदिता गोस्वामी के ही इर्द-गिर्द घुमती है. यानी की पूरी फिल्म में सिर्फ उदिता के किरदार को महत्त्व दिया गया है. एक बोल्ड व स्मार्ट लड़की के किरदार को उदिता ने ठीक-ठाक निभाया है और उनके हिस्से में ही कुछ अच्छे संवाद आये हैं. सहकलाकारों में हर्ष छाया को छोड़ कोई जम नहीं पाया है. नवोदित सोफिया हयात तो महज शो-पीस से ज्यादा कुछ नहीं लगी हैं.
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी सामान्य है और एडिटिंग भी बुरी है जिसकी वजह से पूरी फिल्म सुस्त नज़र आती है. फिल्म का संगीत भी असरदार नहीं है. अगर आप अरसे बाद उदिता के बोल्ड रूप का दर्शन करना चाहते हैं तो फिल्म देखने जा सकते हैं अन्यथा फिल्म में देखने लायक कुछ नहीं है.
एक साधारण सी कहानी की कमजोर पटकथा और असरहीन संवाद की बदौलत पुरी फिल्म थकी-थकी लगती है. अगर पटकथा ही लचर हो तो निर्देशक चाहकर भी कुछ नहीं कर सकता. फिल्म में जिस तरह निर्देशक ने नंगे जिस्म के क्लोसअप सीन में ज्यादा दिलचस्पी दिखाई है अगर उतनी ही दिलचस्पी वे पटकथा में दिखाते तो शायद नतीजा कुछ और ही निकलता.
अभिनय की बात करें तो फिल्म की कहानी शुरू से अंत तक उदिता गोस्वामी के ही इर्द-गिर्द घुमती है. यानी की पूरी फिल्म में सिर्फ उदिता के किरदार को महत्त्व दिया गया है. एक बोल्ड व स्मार्ट लड़की के किरदार को उदिता ने ठीक-ठाक निभाया है और उनके हिस्से में ही कुछ अच्छे संवाद आये हैं. सहकलाकारों में हर्ष छाया को छोड़ कोई जम नहीं पाया है. नवोदित सोफिया हयात तो महज शो-पीस से ज्यादा कुछ नहीं लगी हैं.
फिल्म की सिनेमेटोग्राफी सामान्य है और एडिटिंग भी बुरी है जिसकी वजह से पूरी फिल्म सुस्त नज़र आती है. फिल्म का संगीत भी असरदार नहीं है. अगर आप अरसे बाद उदिता के बोल्ड रूप का दर्शन करना चाहते हैं तो फिल्म देखने जा सकते हैं अन्यथा फिल्म में देखने लायक कुछ नहीं है.
निर्माता : अनिल डालमिया एवं राकेश सभरवाल
लेखन एवं निर्देशन : विनोद मुखी
कलाकार : उदिता गोस्वामी, रति अग्निहोत्री, राजेश खट्टर, हर्ष छाया, नसीर अब्दुल्लाह, सोफिया हयात
संगीत : ताज,मुख़्तार सहोता एवं शिवानी कश्यप
छायांकन : मोहन वर्मा एवं मोहन प्रजापति
रेटिंग : 1/5
लेखन एवं निर्देशन : विनोद मुखी
कलाकार : उदिता गोस्वामी, रति अग्निहोत्री, राजेश खट्टर, हर्ष छाया, नसीर अब्दुल्लाह, सोफिया हयात
संगीत : ताज,मुख़्तार सहोता एवं शिवानी कश्यप
छायांकन : मोहन वर्मा एवं मोहन प्रजापति
रेटिंग : 1/5
राकेश सिंह ‘सोनू’
rakeshsonoo@gmail.com
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